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स्नेहपूर्ण शुभकामनाएँ

आसुरी प्रवृत्तियों पर विजय पाने एवं नये उल्लास के साथ स्नेह -सौजन्य की मधुरता का वातावरण बनाने वाला फाल्गुन-पूर्णिमा पर्व आ पहुँचा है । इस पावन अवसर पर आप सबको अनेकानेक बधाइयाँ - मंगलकामनाएँ ।

पर्व एवं त्यौहार किसी भी राष्ट्र की जीवनी शक्ति के परिचायक होते हैं । इसी क्रम में होली का त्यौहार आनन्दोत्सव एवं हर्षोल्लास के पर्व के रूप में सर्वोपरि है । स्वस्थ एवं ईष्या-द्वेष से मुक्त व्यक्तिगत जीवन, समता, एकता एवं भाईचारे से युक्त सामाजिक व्यवस्था और आनन्द एवं उल्लास से भरा-पूरा जन-जीवन सदैव बना रहे, यही इसका मूल प्रयोजन है । इस पावन अवसर पर यदि हम संकल्पित होकर अपने सभी द्वेष-दुर्भाव एवं बैर-वैमनस्य को यज्ञाग्नि में होमकर सभी सम्पर्क में आये परिजनों के बीच प्रेम-आत्मीयता का विस्तार करते चलें, तो हमारा पूर्ण विश्वास है कि ऋषि युग्म के अनुदान-वरदान का प्रवाह हमारे लिए सहज हो जायेगा और हम सबके लौकिक एवं पारलौकिक जीवन के उत्तरोत्तर विकास में यह सहायक सिद्ध होगा ।

होलास्ति समतापर्वस्ताद्दिनेऽन्योन्यस्य वै ।
असमता ऽ सुरत्वस्य दाहः कार्यो होलिकावत्॥ १॥
होली समता का त्यौहार है । उस दिन निश्चय ही आपस की असमता रूपी असुरता का
होली की तरह दाह करना चाहिए ।

कमप्यत्र समानेऽस्मिन्प्रभेदाज्ज्ान्मलिङ्गयोः ।
नोच्यं नीचं च मन्तव्यं प्रभोरेकस्य सन्ततौ॥२॥
जन्म और लिंग के प्रभेद के कारण इस समान और एक प्रभु को सन्तति में किसी
को भी ऊँचा और नीचा नहीं मानना चाहिये ।

गुणकर्मस्वभावानां कृत्रिमभेदेन मानवाः ।
जायन्ते लिंग जातिभ्यां नीचाश्चोच्चास्तु न वस्तुतः ॥३॥
गुण, कर्म औ स्वभाव की कृत्रिम भिन्नता से मनुष्य उच्च और नीच बनते हैं,
लिंग और जाति से नहीं । वैसे वास्तव में कोई भी उच्च और नीच नहीं होता ।

दुरीकुर्वन्षिमतां विभेदानां प्रयत्न्तः ।
आत्मीयत्वमेकतां च स्वीकुर्यात्स्वात्मवत्तया॥४॥
भेद-प्रभेदों की विषमता को दूर हटाते हुए एकता और आत्मीयता (अपनेपन) को
अपनाना चाहिए ।

निन्दितं चार्थिकं लोके विषमत्वमसङ्गतम् ।
प्राप्तव्यो निखिलैस्तत्र चावसरस्तुल्योचतः॥५॥
संसार में आर्थिक विषमता, असंगत और निन्दित है । इस जगती-तल में सभी को
(चाहे गरीब हो या अमीर) समान एवं उचित अवसर मिलने चाहिये ।

भूत्वा भीरुः दुर्बलो वा दीनस्तिष्ठन्ने मानवः ।
नृसिंहवच्च निर्भयो वीरो जीवेदिह सदा॥ ६॥
दीन, दुर्बल और डरपोक होकर मनुष्य को नहीं रहना चाहिए। सर्वदा इस संसार
में नृसिंह की तरह निर्भय और वीर का जीवन जिये ।

धूलिं च मातृभूमेस्तु मस्तके धारयन्ति ये ।
सदैव तां च ध्यायन्ति नरा धन्यजी वनः॥ ७॥
जो मनुष्य मातृभूमि की धूलि को मस्तक पर धारण करते अर्थात् बढ़ाते हैं ओर
सदा उस मातृभूमि का ध्यान रखते अर्थात् उसके लिये त्याग करते हैं, वे
मनुष्य धन्य जीवन वाले अर्थात् सौभाग्यशाली हैं ।

वैमनस्रूं दुर्भावत्वं ज्वालयेच्य समूलतः ।
समानत्वेन प्रेम्णा च सानंदं निवसेदिह॥ ८॥
द्वेष और दुर्भाव को जड़ सहित जला देना चाहिए । संसार में समानता से और
प्रेम से आनन्दपूर्वक रहना चाहिए ।

उचितमेव र्कत्तव्यं कर्मात्र खलु सर्वदा ।
जनकस्याप्यनुचितं चादेश कुर्यान्नैव हि॥ ९ ॥
संसार में सदा उचित कर्म ही निश्चय रूप से करना चाहिए। पिता की भी अनुचित
आज्ञा अर्थात् बात को नहीं मानना चाहिये ।

प्रथमोऽस्ति समाजस्य चाधिकारो हि स्वार्जित ।
यज्ञावशिष्टमितिच मत्वोपभुञ्जीत स्वयम् ॥ १०॥
अपनी कमाई में समाज का पहला अधिकार है । शेष को यज्ञावशिष्ठ है, यह मानकर
स्वयं उपभोग में लाना चाहिये ।

इस होलिका पर्व के आगमन पर हमारी स्नेहपूर्ण शुभकामनाएँ

आपका शुभचिंतक
रवि शंकर यादव Mobile. 9044492606
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