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धर्मनिरपेक्षता का एक और चेहरा

पश्चिम बंगाल के छोटे से शहर देगांगा में इस वर्ष दुर्गा पूजा नहीं मनाई गई 5 सितम्बर को देगंगा के काली मन्दिर के पास खुली ज़मीन, जिस पर दुर्गा पूजा का पंडाल विगत 40 वर्ष से लग रहा है, को लेकर जेहादियों ने आपत्ति उठाना शुरु किया और उस ज़मीन की खुदाई करके एक नहर निकालने की बात करने लगे ताकि पूजा पाण्डाल और गाँव का सम्पर्क टूट जाये जिससे उस ज़मीन पर अवैध कब्जे में आसानी हो, उस वक्त स्थानीय पुलिस ने उस समूह को समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। 6 सितम्बर की शाम को इफ़्तार के बाद अचानक एक उग्र भीड़ ने मन्दिर और आसपास की दुकानों पर हमला बोल दिया। क्योंकि तृणमूल कांग्रेस से जुड़े एक दबंग मुस्लिम नेता ने हिंदू आबादी पर सुनियोजित हिंसा की। इस पर स9ााधारी लोग और मीडिया, दोनों लगभग मौन रहे। स्थानीय हिंदुओं को भय है कि उन पर हमले करके आतंकित कर उन्हें वहां से खदेड़ भगाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। असम और बंगाल में कई स्थानों पर यह पहले ही हो चुका है, इसलिए इस जनसांख्यिकी आक्रमण को पहचानने में वे भूल नहीं कर सकते। हम आपको बता दे की इस क्षेत्र में मुसिलम जनसंख्या लगभग 70 से 75 प्रतिशत के बीच है। वस्तुत: ऐसी घटनाओं पर राजनीतिक मौन ही इसके वास्तविक चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है। क्या किसी शहर में मुस्लिमों द्वारा किसी बात पर विरोध-स्वरूप ईद न मनाना भारतीय मीडिया के लिए उपेक्षणीय घटना हो सकती थी। चुनी हुई चुप्पी और चुना हुआ शोर-शराबा अब तुरंत बता देता है कि किसी सांप्रदायिक हिंसा का चरित्र क्या है। पीडि़त कौन है, उत्पीड़क कौन। जब भी हिंदू जनता हिंसा और अतिक्रमण का शिकार होती है, राजनीतिक वर्ग और अंग्रेजी मीडिया मानो किसी दुरभिसंधि के अंतर्गत मौन हो जाता है। हमने बरेली के दंगों के समय भी देख था, जहाँ लगातार 15 दिनों तक भीषण दंगे चले थे और हेलीकॉप्टर से सुरक्षा बलों को उतारना पड़ा था। उस वक्त भी "तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों" और "फ़र्जी सबसे तेज़" चैनलों ने पूरी खबर को ब्लैक आउट कर दिया था यहाँ सेना के फ़्लैग मार्च और RAF की त्वरित कार्रवाई के बावजूद आज एक सप्ताह बाद भी मीडिया ने इस खबर को पूरी तरह से दबा रखा है। जैसी कि आशंका पहले ही जताई जा रही थी कि बंगाल के आगामी चुनावों को देखते हुए माकपा और तृणमूल कांग्रेस में मुस्लिम वोट बैंक हथियाने की होड़ और तेज़ होगी, और ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी होना तय है। घटना के तीन दिन बाद तक भाजपा के एक प्रतिनिधिमण्डल को छोड़कर अन्य किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता ने वहाँ जाना उचित नहीं समझा, क्योंकि सभी को अपने वोटबैंक की चिंता थी। राष्ट्रीय अखबारों में सिर्फ़ पायनियर और स्टेट्समैन ने इन खबरों को प्रमुखता से छापा, जबकि "राष्ट्रीय" कहे जाने वाले भाण्ड चैनल दिल्ली की फ़र्जी बाढ़, तथा दबंग और मुन्नी की दलाली (यानी प्रमोशन) के पुनीत कार्य में लगे हुए थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी स्टार आनन्द जैसे प्रमुख बांग्ला चैनल ने पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी। 24 सितम्बर को आने वाले अयोध्या के निर्णय की वजह से मीडिया को अपना "सेकुलर" रोल निभाने के कितने करोड़ रुपये मिले हैं यह तो पता नहीं यह आसानी से इसलिए संभव होता है, क्योंकि भारत में कोई संगठित हिंदू राजनीतिक समूह नहीं है। हिंदू भावनाएं, दुख या चाह को व्यक्त करने वाला कोई घोषित या अघोषित संगठन भी नहीं है। कुछ लोग भाजपा को हिंदू राजनीति से जोड़ते हैं, किंतु इस पर हिंदुत्व थोपा हुआ है। स्वयं भाजपा ने कभी हिंदू चिंता को अपनी टेक घोषित नहीं किया। इसने पिछला लोकसभा चुनाव भी विकास और मजबूती के नारे पर ही लड़ा था। गुजरात, मध्य प्रदेश या बिहार में भी वह हिंदू चिंता की अभिव्यक्ति से बचती है। मुस्लिम संगठन ठीक उलटा करते हैं। इसलिए भाजपा पर हिंदू सांप्रदायिक होने या हिंदुत्व से भटकने के दोनों आरोप गलत हैं, जो उसके विरोधी या समर्थक लगाते हैं। विरोधी इसलिए, क्योंकि किसी न किसी को हिंदू-सांप्रदायिक कहना उनकी जरूरत है ताकि वे मुस्लिम वोट-बैंक के सामने अपना हाथ फैलाएं। समर्थक भाजपा पर भटकने का आरोप इसलिए लगाते हैं, क्योंकि हिंदू चिंता को उठाने वाला कोई दल न होने के कारण वे भाजपा पर ही अपनी आशाएं लगा बैठते हैं। भाजपा इन आशाओं का विरोध नहीं करती, पर उसने कभी इन आशाओं को पूरा करने का वचन भी नहीं दिया। राम मंदिर बनाने की बात या धारा 370 हटाने की आवश्यकता बताना-हिंदू राजनीति नहीं है। अयोध्या में ताला खुलवाकर पूजा की शुरुआत तो राजीव गांधी ने ही की थी। इसी प्रकार धारा 370 के अस्थायी होने की बात तो संविधान में कांग्रेस ने ही लिखी थी। अत: इक्का-दुक्का भाजपा नेताओं द्वारा कभी-कधार कुछ कहना हिंदू राजनीति नहीं है। यह कभी-कभार हिंदू भावनाओं को उभारती या उपयोग करती है, पर यह नीति भारत में प्रचलित हिंदू-विरोधी सेक्युलरवाद से पार नहीं पा सकती। उसी तरह वह हिंदुत्व भी अकर्मक है जिसमें खुल कर सामने आने का साहस नहीं, जिसमें हर हाल में सही बात कहने की दृढ़ता न हो, जो प्रबल विरोधियों के समक्ष सच कहने से कतराता हो, जिसके कार्यकर्ता पहले अपना निजी स्वार्थ साधने के लोभ में डूबे रहते हैं। वह भी व्यर्थ हिंदुत्व ही है जो केवल स9ाा पाने अथवा पहले स9ाा में आने के लिए हिंदू भावनाओं का उपयोग करने का प्रयास करता हो। यह सब छद्म हिंदुत्व है जो यहां प्रचलित सेक्युलरवाद से हारता रहा है, हारता रहेगा। उपर्युक्त भाव और रूप किसी दल या नेता की विशेषताएं नहीं हैं। यह विभिन्न संगठनों और विभिन्न नेताओं-कार्यकर्ताओं की विशेषताएं हैं। यह अपने स्वभाव से ही इतना दुर्बल है कि शिकायतें करने और दूसरों पर निर्भर रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए छद्म हिंदुत्व, शिकायती हिंदुत्व और हिंदू राजनीति के अभाव में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। अत: इस गंभीर सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि जिस तरह मुस्लिम राजनीति एक स्थापित शक्ति है, उसी तरह किसी हिंदू राजनीति का अस्तित्व ही नहीं है। हिंदू भावनाओं वाले कुछ नेता-कार्यकर्ता अनेक दलों में हैं, पर हिंदू भावना एक बात है और हिंदू राजनीति को स्वर देना बिलकुल दूसरी बात।

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