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भ्रष्टाचार को बनाए रखना सरकार की राजनीतिक मजबूरी है?

सरकार की नीयत पर संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बनाए रखना उसके लिए एक राजनीतिक मजबूरी है। कारण साफ है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी कड़ी कार्रवाई समूची व्यवस्था को हिलाकर रख सकती है। अत: लोकपाल विधेयक के मसौदे को तैयार करने को लेकर हुई बैठकों में सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले कानून-विशेषज्ञ नुमाइंदे सिविल सोसाइटी की मांगों का जिस तरह से विरोध कर रहे हैं उसे समझा जा सकता है। सरकार की मंशा सिविल सोसाइटी का नेतृत्व करने वालों को फिर से सड़कों पर धकेलने की ही ज्यादा दिखाई देती है। अन्ना हजारे घोषणा कर चुके हैं कि सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि 30 जून के बाद लोकपाल मसौदा समिति की किसी भी बैठक में भाग नहीं लेंगे।

सरकार भ्रष्टाचार को कायम रखते हुए ही उसे समाप्त करने के संकल्प पारित करना चाहती है, जो कि संभव नहीं है। प्रधानमंत्री घोषणा करते हैं कि सीजर की पत्नी को संदेहों से परे होना चाहिए। दूरसंचार घोटाले के हल्ले के दौरान डा. मनमोहन सिंह संसद की लोकलेखा समिति के समक्ष पेश होकर सफाई देने की एकतरफा घोषणा भी करते हैं। पर मसौदा समिति की बैठक में सरकार के ही प्रतिनिधि प्रधानमंत्री कार्यालय को लोकपाल के दायरे में लाने से खौफ खाते हैं और जन भावनाओं का मजाक उडऩे वाले तर्क देते हैं। यूपीए सरकार द्वारा सत्ता में दो वर्ष पूरे करने पर जनता के लिए जारी रिपोर्ट में श्रीमती सोनिया गांधी को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया है कि ‘हम भ्रष्टाचार की समस्या का डटकर मुकाबला करेंगे और शब्दों से नहीं बल्कि कर्म के माध्यम से यह दिखा देंगे कि हम इस दिशा में ईमानदारी से काम करना चाहते हैं।’ पर पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय, न्यायपालिका, संसद में सदस्यों के आचरण और व्यवस्था को दीमक की तरह खोखला करने वाले भ्रष्ट अधिकारियों को अगर सरकार लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है तो फिर भ्रष्टाचार का खात्मा वह किन स्थानों से और किस तरह से करना चाहती है। सरकार बहुत अच्छे से जानती है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सिविल सोसाइटी की मांगों के सामने घुटने टेकने का मतलब अपने समूचे तंत्र को जनता की जांच के लिए खोल देना होगा और कोई भी व्यवस्था ऐसा होना तब तक स्वीकार नहीं करना चाहेगी जब तक कि जनता की कोई महाशक्ति अपने आंदोलन के जरिए उसे ऐसा करने के लिए मजबूर ही नहीं कर दे।

इसमें तो कोई शक नहीं बचा है कि सरकार डरी हुई है। मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में परिवर्तनों के लिए व्यक्त हो रहे जनाक्रोश और हमारे यहां सिविल सोसाइटी में भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ मच रही हलचल का ही परिणाम है कि पहले अन्ना हजारे के अनशन को समाप्त कराया गया और अब रामदेव को मोर्चा न खोलने के लिए मनाया जा रहा है। सरकार और अन्य राजनीतिक दलों के गले उतरना अभी बाकी है कि भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आक्रोश जंतर-मंतर से बाहर निकलकर काफी दूर जनता के बीच देश के गांव-गांव तक पहुंच चुका है। अन्ना हजारे अब अण्णा हजारों में परिवर्तित हो चुके हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद व्यक्त हो रही सिविल सोसाइटी की इस अभूतपूर्व अभिव्यक्ति का एक चिंताजनक पक्ष यह भी है कि जहां एक ओर सरकार संवैधानिक ढांचे की आड़ लेकर मूल मुद्दों का सामना करने से मुंह चुरा रही है, विपक्षी राजनीतिक दल भी लोकपाल विधेयक से संबद्ध मुद्दों का केवल दबी जुबान से ही समर्थन कर रहे हैं, खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। कारण साफ है कि हमाम में सब नंगे हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच जिन मुद्दों पर मतभेद हैं वे अंततोगत्वा केंद्र में स्थापित होने वाली भविष्य की सभी सरकारों और राज्य सरकारों के हितों पर भी प्रहार करने वाले हैं।

सभी तरह के भ्रष्टाचारों और सांसदों/विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए बनने वाली सरकारें अपने आपको लोकपाल की कड़ी निगरानी में सुपुर्द करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगी। पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल अगर कहते हैं कि लोकपाल के गठन को लेकर सरकार की नीयत साफ है तो वैसा नजर भी आना चाहिए। सीजर की पत्नी को जनता अग्निपरीक्षा देने के लिए बाध्य भी कर सकती है।

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